जब जीवन की थकान
उदासियों के बोझ
तोड़ने लगते हैं कंधे
तो लगता है लौट जाएं अपने घर
जहां जीवन से भरी गेहूँ की बालियाँ
अब भी चैता गाती होंगी
पनघट की रौनक
पकी फसलों वाले खेत
अन्न से भरे बखार
सब के सब समय की सीजन से अछूते होंगे
गांव कभी नही भूलता अपने बच्चों को
चौपालों में हर रोज उन्हें याद किया जाता है
जो एक एक कर चले गए होंगे
अभी भी उनके नाम के गीत गाये जाते हैं
जैसे घोंसले में लौटती है बया
जैसे सांझ को लौटती हैं गायें
जैसे बाजार से लौटते हैं पिता
जैसे मायके में आती हैं बेटियां
जैसे अयोध्या लौट आये थे राम चौदह बरस बनवास से
जैसे लौट आता है पंछी फिर से जहाज पर आकाश से
पर सनद रहे
लौटना तो बादल बनकर
खेत बनकर ताल बनकर
फूल बनकर बाग बनकर
गेंहू और धान बनकर
गीत बनकर थाप बनकर
स्नेह और विश्वास बनकर
अगर ऐसे नही लौट पाए तो
लौटना चले जाने से भी बदतर होगा।