संविधान के चौथे स्तम्भ की कहानी जर्जर दरख़्तों की जिंदगानी या प्राचीर की रवानी

काहे को रोना, हमपेशा के इस आचरण का
यह तय है कि हम में से कई हमपेशा कभी नहीं सुधरेंगे। वे जो अर्जुन सिंह के दौर में पीलेपन से सने उन दो पृष्ठों की दम पर भी पत्रकार मान लिए जाते थे, जिनका इस मिशन में केवल कमीशन वाला सरोकार होता था। सुधरेंगे वह भी नहीं, जो प्रशासन तथा पुलिस से जुड़े मलाईदार कुर्सी पर बैठे अफसरों को सलाम करने को ही पत्रकार होने का परम कर्तव्य मानने के गुरुकुल का सफलतापूर्वक संचालन कर रहे हैं। सुधार का कोई लक्षण उनके पास नहीं फटका था, जो शिवराज सिंह चौहान सरकार के बीते कार्यकाल में उनकी हर प्रेस कांफ्रेंस के पहले कलम में सियाही की उपलब्धता की बजाय मोबाइल फोन में चार्जिंग पूरी होने की फिक्र करते थे, ताकि मुख्यमंत्री के साथ सेल्फी लेने के पुण्य से वंचित न हो जाएं। सकारात्मक बदलाव के प्रति उनका असहयोग आंदोलन पूरी तरह सफल रहा, जो हालिया बेदखल हुई कमलनाथ सरकार में केवल इस बात से निहाल हो जाते थे कि एक क्षण के सौवे हिस्से के लिए ही सही, मुख्यमंत्री ने उनकी तरफ देखने की महान कृपा कर दी थी।


मध्य प्रदेश में जिस जगह कभी सच्ची पत्रकारिता का राजसूय यज्ञ चलता था, वहां बीते लम्बे समय से निजी स्वार्थों वाले पृथक-पृथक कुटीर उद्योग चलाये जा रहे हैं। एक ऐसा अघोषित इंडस्ट्रियल एरिया, जिसमें समाचार की बजाय बहुधा अनाचार का उत्पादन ही हो रहा है। लेकिन क्योंकि शुरू से अब तक बताये गए श्रेणी के जीव ही पत्रकारिता की पहचान बन गए हैं, इसलिए हमें हैरत नहीं होना चाहिए कि कोरोना वायरस से ग्रस्त एक पत्रकार ने राजधानी की सड़कों पर प्रशासन की नाक में दम कर दिया। वो आइसोलेशन की प्रक्रिया के प्रति सपरिवार अविनय अवज्ञा आंदोलन चलाने पर उतर आया। जो शख्स करीब ढाई सौ लोगों की भीड़ में मुख्यमंत्री निवास की पत्रकार वार्ता में शामिल हुआ हो। जो व्यक्ति इसके ठीक बाद राज्य की विधानसभा के गलियारों में घूम-फिर चुका हो, उस पुण्यात्मा से ये उम्मीद बेमानी है कि वह आइसोलेशन जैसी ठेठ आम आदमी के लिए बनी व्यवस्था का पालन करे, वो भी मध्यप्रदेश का 'सक्रिय' पत्रकार होने के बावजूद।


क्या यह घोर निंदनीय नहीं है! जिस वायरस के लक्षण मात्र दिखने पर हम लोगों को तुरंत सब से अलग हो जाने की सलाह देते हैं, उस वायरस की शरीर में पुष्टि हो जाने के बावजूद हमारा एक हमपेशा अस्पताल जाने के लिए तैयार नहीं है! इतना गुरूर कि खुद तो खुद, दूसरों की जान की भी कोई परवाह नहीं है उसे। यकीनन ये वो फितरत है, जो खुद को देवता मान लेने की गलतफहमी से उपजती है। इसमें अपार गौरव का अनुभव होता है। दोपहियां वाहन चलाते समय हेलमेट और चार पहिया की सवारी के समय सीट बेल्ट से दूरी,पत्रकारिता के इसी मुगालते को बनाये रखने के हिस्से हैं। ऐसे कानूनों के पालन से हम अपने आभाजगत वालों की नजर से गिर जाते हैं। वो हमें कानून से डरने वाला न समझ लें, इसलिए हम हेलमेट या सीट बेल्ट का उपयोग नहीं करते। बल्कि व्यवस्था की ऐसी अवहेलना के समय हमारा एक और प्रयास होता है। वो ये कि की हम खुल्लमखुल्ला नियम का उल्लंघन करें और उसी समय पुलिस या प्रशासन का कोई अफसर हमें देखकर मित्रवत हाथ हिला दे।


 तब हम अपने आभामंडल के फॉलोवर्स को गर्व से यह दिखा देते हैं कि देखा, हूं ना पत्रकार, कानून हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। कोरोना वायरस से पीड़ित पत्रकार ने जो कुछ प्रपंच किये, वो सब इसी गर्व से ही प्रेरित थे। आपको लेश मात्र भी पछतावा नहीं कि विदेश से लौटी हुई बेटी को लेकर सावधानी बरत ली होती। वो भी तब, जब कनिका कपूर सहित कई अन्य मामलों से साफ है कि विदेश यात्रा से भारत लौटे लोगों में इस वायरस के देर-सवेर  पाए जाने की पूरी आशंका है। एक ही आशंका के सच न होने का परम संतोष है। वो ये कि इन पत्रकार महोदय की इस ठसक को परवान चढाने के जतन नहीं हुए। प्रशासन की आवश्यक सख्ती को मीडिया की आजादी पर हमला बताने का दुष्प्रयास नहीं किया गया। पत्रकारों के कुकुरमुत्तों की तरह उगे ढेरों संगठनों में से किसी ने इसके खिलाफ आंदोलन की चेतावनी नहीं दे डाली। ऐसा हो जाता तो भी कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए था, क्योंकि शुरू में ही कहा है- यह तय है कि हम में से कई हमपेशा कभी नहीं सुधरेंगे।


असल में जो वाकई मैं मीडियाकर्मी हैं जिनका हम अखबारों में लिखा देखते हैं। टी वी चैनलों पर उनको हर कठिन परिस्थिति में भागते दौड़ते और हमें अपडेट करते देखते हैं, उनके पास पत्रकारिता के आभा मंडल में जीने का समय ही नहीं है। वे जानते हैं कि उनका कोई प्रीविलेज नहीं है। हर परिस्थिति में खबर को जुटाना उनकी अपनी जिम्मेदारी है और वे इसके लिए किसी पर अहसान नहीं कर रहे हैं। यह तो मध्यप्रदेश में इस मामले में माहौल अच्छा है कि मीडिया कर्मियों का मान-सम्मान कायम है। कई जगह उन्हें खराब परिस्थितियों में ही काम करना होता है। लेकिन मीडिया अगर भीड़ में बदलता नजर आ रहा है तो इसका कारण इसका ग्लेमर भी है। हालांकि यह दूर के ढोल सुहावने जैसा है। लेकिन इस भीड़ ने वास्तविक पत्रकारों के लिए बेहतर काम करने के रास्ते में बाधाएं खड़ी कर दी है। चाहे मुख्यमंत्री की पत्रकार वार्ता हो या फिर विधानसभा के सत्र, वहां ऐसे ढेरों फालतू घूम रहे होते हैं जिन्हें न कहीं लिखना होता है न पढ़ना। या इस प्रक्रिया से उनका कोई वास्ता ही नहीं है। लेकिन विडम्बना यह है कि इस पेशे में शामिल होने के कोई तय मापदंड ही नहीं है। लिहाजा, ढाई सौ से ज्यादा मीडिया कर्मी इस समय अपने परिवारों के साथ दहशत में जी रहे हैं।