शायद आपको पता नही होगा! स्ञी पुरुषो से ज्यादा सुंदर क्यो दिखायी पडती है? शायद आपको खयाल न होगा, स्ञी के व्यक्तत्व मे एक राउडनेस, एक सुडौलता क्यो दिखायी पडती है? वह पुरुष के व्यक्तीत्व मे क्यो नही दिखायी पडती? शायद आपको खयाल मे न होगा कि स्ञी के व्यक्तित्व मे एक संगीत, एक नृत्य, एक इनर डांस, एक भीतरी नृत्य क्यो दिखायी पडता है जो पुरुष मे दिखाई नही पडता है। एक छोटा सा कारण, बहुत बडा कारण नही है। एक छोटा सा, इतना छोटा है की आप कल्पना भी नही कर सकते। इतने छोटे से कारण पर व्यक्तित्व का इतना भेद पैदा हो जाता है। माॅ के पेट मे जो बच्चा निर्मित हो जाता है, उस पहले अणु मे चौबीस जीवाणु पुरुष के होते है और चौबीस जीवाणु स्ञी के होते है। अगर चौबीस - चौबीस के दोनों जीवाणु मिलते है तो अडतालीस जीवाणुओ का पहला सेल निर्मित होता है। अडतालीस सेल से जो प्राण पैदा होता है वह स्ञी का शरीर बन जाता है। उसके दोनो बाजू चौबीस चौबीस सेल के होते है, बैलेस संतुलित। पुरुष का जो जीवाणु होता है वह सैतालिस जीवाणुओ होता है। एक तरफ चौबीस होते है, एक तरफ तेईस। बस यह बैलेंस टूंट गया, वही से व्यक्तित्व का संतुलन टूट गया वही से व्यक्तित्व का — हार्मनी टूट गयी।
स्ञी के दोनो पलडे व्यक्तित्व के बराबर संतुलन के है। उससे सारा स्ञी का सौदर्य, उसकी सुडौलता, उसकी कला, उसके व्यक्तित्व का रस, उसके व्यक्तित्व का काव्य पैदा होता है। और पुरुष के व्यक्तीतत्व मे जरा—सी कमी है, तो उसका एक तराजू चौबिस जीवाणुओं से बना हुआ है। माँ से जो जीवाणु मिलता है वह चौबिस का बना हुआ है और पुरुष से जो मिलता है वह तेईस का बना हुआ है।
पुरुष के जीवाणुओ मे दो तरह के जीवाणु होते है, चौबिस कोष्ठधारी और तेईस कोष्ठधारी। तेईस कोष्ठधारी जीवाणु अगर मां के चौबिस कोष्ठधारी जीवाणु से मिलता है तो पुरुष का जन्म होता है। इसलिए पुरुष मे एक बेचैनी जीवनभर बनी रहती है, एक इन्टैस डिसकन्टेंट बना रहता है। क्या करुं, क्या करुं.... एक चिंता, एक बेचैनी, यह कर लूं यह कर लूं, वह कर लूं । पुरुष को जो बैचेनी है वह एक छोटी—सी घटना से शुरु होती है और वह घटना है कि उसके एक पलडे पर एक अणु कम है। उसका बैलेंस, व्यक्तित्व कम है। स्ञी का बैलेंस है, स्ञी की हार्मानी पुरी है।
इतनी सी घटना इतना फर्क लाती है। हालांकि इससे स्ञी सुंदर तो हो सकी लेकिन स्ञी विकासमान नही हो सकी, क्योकि जिस व्यक्तित्व मे समता है वह विकास नही करता, वह ठहर जाता है। पुरुष का व्यक्तित्व विषम है। विषम होने के कारण वह दौडता है, विकास करता है, एवरेस्ट चढता है, पहाड पार करता है, चांद पर जायेगा, तारो पर जायेगा, खोज—बीन करेगा,सोचेगा, ग्रंथ लिखेगा, धर्म निर्माण करेंगा।स्ञी यह कुछ भी नही करेगी। न वह एवरेस्ट जायेगी, न वह चांद तारो पर जायेगी, न वह धर्मो की खोड करेगी, ना ग्रंथ लिखेगी, न विज्ञान की शोध करेगी। वह कुछ भी नही करेगी। उस व्यक्तित्व मे एक संतुलन उसे पार होने के लिए तीव्रता से नही भरती है। पुरुष ने सारी सभ्यता विकसित की, एक छोटी सी बात के कारण,उसमे एक अणु कम है। और स्ञी ने सारी सभ्यताएं विकसित नही की, उसमे एक अणु पूरा है। उतनी सी घटना व्यक्तित्व का भेद ला सकती है। मै इसलिए यह कह रहा हूं कि यह तो बायलाॅजीकली है, यह तो जीव शास्ञ कहेगा, इतना सा फर्क, इतने भिन्न व्यक्तित्वों को जन्म दे देता है और गहरे फर्क है और इतने डिफरेंस है।
स्त्रितव