औरतें जी कर भी जी नहीं पातीं...

औरतें जी कर भी
जी नहीं पातीं...


और चैन से मर भी 
नहीं पातीं।


अटका रह जाता उनका मन...


अपने बच्चों में,
परिवार में...


तीज में,
त्यौहार में...


माँ के आँचल में,
मायके के आँगन में...


घर की तुलसी में,
बालकनी की कुर्सी में...


जब तक जीती हैं
भागा दौड़ी में ही
निकल जाता है वक़्त...


और जब मरती हैं तो,
छोड़ जाती हैं...


अपना अंश...
अपना वंश...
अपनी यादें...
अपनी निशानियाँ...
ढेर सारी कहानियाँ...
कुछ बातें...
कुछ वादे...


छोड़ जाती हैं,
घर के कोने-कोने में,
थोड़ा-थोड़ा
ख़ुद को...