रावण दहन तार्किक या मार्मिक

बात धर्म-अधर्म की/दहन दसकंधर का
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इस बार राम ने जैसे ही 
दसकंधर को ललकारा है,
तरकश से तीखे तीर लिए 
कांधे से धनुष उतारा है,,
वैसे ही विकल दशानन का 
आतुर विद्रोही मन डोला,
वाणी में विस्फोटक भर कर 
वह राघव से ऐसे बोला,,


रावण पर बाण चलाने का 
हे राम उपाय नहीं करना,
हे दशरथनंदन सावधान 
ऐसा अन्याय नहीं करना,,
तुम मर्यादा पुरुषोत्तम हो 
करुणानिधान कहलाते हो,
दुष्टो का करते हो विनाश 
धरती से पाप मिटाते हो,,,


दुनिया का सारा पाप क्या 
मुझ में ही दिखलाया है,
केवल मुझ पर ही बार बार 
तुमने धनुष बाण उठाया है,,
पहले सागर के उस पार मिली 
फिर सागर के इस पार मिली,
अपराध किया था एक बार 
पर सजा हजारों बार मिली,,,


मैं राक्षस संस्कृति का स्वामी 
मैंने तो अपना काम किया,
हे आर्यपुत्र इस दुनिया ने 
नाहक मुझ को बदनाम किया,,
तुम नायक हो मैं खलनायक 
बेशक तुम मुझ पर वार करो,
भारत के क्रूर दरिंदों का 
पहले तुम संहार करो,,,


माना मैंने घर साधु वेश 
वैदेही का अपहरण किया,
लेकिन मर्यादा के विरुद्ध 
आगे न कोई आचरण किया,,
सीता अशोक वाटिका में रही 
मेरा इतना ही नाता था,
मेरी पटरानी बन जाओ 
यह कहकर के धमकाता था,,,


मैं राक्षस हूं मेरा स्वभाव  था 
धमकाना सो मैं धमकाता था,
पर जब जब जाता पास कभी 
पत्नी को लेकर जाता था,,
जिसको अपराध कहोगे तुम 
ऐसा तो कुछ भी हुआ नहीं,
लंका में मैंने सीता को एक 
उंगली से भी छुआ नहीं,,,


लेकिन जिस भारत को तुम 
अपनी मातृभूमि बतलाते हो,
जिसके आगे सोने की तुम 
मेरी लंका ठुकराते हो,,
उस भारत में हे राघवेंद्र 
पापों की नदी बह रही है,
जिसको तुम माता कहते हो 
वह कितने दुख शह रही है,,,


है नहीं सुरक्षित अबलाएं 
हे राम तुम्हारे भारत में,
नित दिन लूटी जाती बालाएं 
हे राम तुम्हारे भारत में,,
कर दिया कलंकित साधु वेश 
भारत के नमक हरामो ने,
अपराधी कुटिल कामियों ने 
ज्ञानेश्वर आसारामो ने,,


मर्यादा कि सब सीमाएं हैं 
राघव टूटी जाती हैं,
कितनी दामनिया निर्भय हो 
सड़को पर लूटी जाती हैं,,
हे राघवेंद्र इन दुष्टों पर क्यों 
धनु टंकार नहीं करते,
लज्जा के क्रूर लुटेरों पर 
क्यों वज्र प्रहार नहीं करते,,,


इन पापी अधम पिशाचों के 
सीने पर प्रथम प्रहार करो,
मैं वक्ष खोल कर खड़ा हुआ 
राघव फिर मुझ पर वार करो,,,,,